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राजनीति में नेताओं ने इसी बिजनेस माडल का उन्नत स्वरूप अपनाया है। राजनीतिक दल अधिक वोट पाने के लिए चुनावी घोषणा पत्र में मतदाताओं को रिझाने के लिए कई लुभावनी स्कीमों की घोषणा करते |
मुफ्त खोरी की राजनीति का चलन 1967 में तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव से हुई थी उस समय द्रुमक एक रुपए में डेढ़ किलो चावल देने का वादा किया था यह वादा ऐसे समय में किया गया था जब देश खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था! 2 साल पहले शुरू हुए हिंदी विरोधी अभियान और उसके बाद एक रुपए में चावल के इस वादे के दम पर द्रुमक ने तमिलनाडु से कांग्रेस का सफाया कर दिया था! तब से आज तक यह सिलसिला चलता जा रहा है तमिलनाडु से शुरू हुआ यह रोग धीरे-धीरे सभी राज्यों में फैल चुका है! आज मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के वादे करना सभी राजनीतिक दलों के लिये स्पर्धा का विषय बन गया है!
इतिहास इस बात का साक्षी है किसी भी देश की आर्थिक उन्नति का अहम घटक आर्थिक-विकास होता है! जीवन की गुणवत्ता, सामाजिक समरसता, गरीबी उन्मूलन और सतत विकास में आर्थिक विकास ही अपनी भूमिका अदा करता है!
चुनावों के दौरान विभिन्न प्रकार के दलों तथा सत्ता पक्ष द्वारा जनता को लुभावने के लिए मुफ्त योजनाओं का ऐलान किया जाता है ! उसका असर राज्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है इससे राज्य की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान चुकाना पड़ता है! क्योंकि जब प्राथमिकताएं गड़बड़ा जाती हैं तब वहां विकास नही हो पाता है! अगर राजनेता दूरगामी परिणाम को सोच करके प्राथमिकताओं को लेकर के चुनाव लड़ेंगे तो इससे ना केवल आम जनता का विकास होगा बल्कि वह राज्य भी उन्नति के पथ की ओर अग्रसर होगा ! परन्तु वे तात्कालिक लाभ के लिए केवल आकर्षित करने वाली मुफ्त योजनाओं का ऐलान करते है जिससे वोटरों को रिझाने का कार्य आसानी से किया जा सके है!
एक सर्वे के अनुसार,लोग अच्छी सेवा के बदले दाम चुकाना चाहते हैं लेकिन हमारे देश के राजनेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए सब कुछ फ्री में बांटने पर आमदा है! इससे ना तो जनता का कल्याण होता है और ना ही राज्य का! राज्य की अर्थव्यवस्था गर्त में चली जाती है! राजस्व की कमी के चलते विकास की बातें हैं हवा हवाई साबित होने लगती हैं आम जनता को समझना होगा कि आपको फ्री में कुछ नहीं मिलता जनता के टैक्स से ही वह सब आता है! हमारे देश का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण परिवेश में निवास करता है जहाँ लोग राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक नहीं होते हैं इसलिए वे लोग आसानी से राजनेताओं की बातों में विश्वास कर लेते हैं और अपने वोट का महत्व नासमझ करके! मुफ्तकारी योजनाओं के नाम पर अपना वोट डाल देते है! अगर देखा जाये तो जनता को मैनिपुलेट करने का ये जो प्रयास बार-बार किया जाता है वह बहुत संवेदनशील है! चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को इसके खिलाफ सख्त रुख अख्तियार करना चाहिए इससे चुनाव सीधे रूप से प्रभावित होता है मुफ्त योजनाएं एक तरह से आधुनिक घूस का पर्याय बन गए है!
चुनावों के दौरान विभिन्न प्रकार के दलों तथा सत्ता पक्ष द्वारा जनता को लुभावने के लिए मुफ्त योजनाओं का ऐलान किया जाता है ! उसका असर राज्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है इससे राज्य की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान चुकाना पड़ता है! क्योंकि जब प्राथमिकताएं गड़बड़ा जाती हैं तब वहां विकास नही हो पाता है! अगर राजनेता दूरगामी परिणाम को सोच करके प्राथमिकताओं को लेकर के चुनाव लड़ेंगे तो इससे ना केवल आम जनता का विकास होगा बल्कि वह राज्य भी उन्नति के पथ की ओर अग्रसर होगा ! परन्तु वे तात्कालिक लाभ के लिए केवल आकर्षित करने वाली मुफ्त योजनाओं का ऐलान करते है जिससे वोटरों को रिझाने का कार्य आसानी से किया जा सके है!
एक सर्वे के अनुसार,लोग अच्छी सेवा के बदले दाम चुकाना चाहते हैं लेकिन हमारे देश के राजनेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए सब कुछ फ्री में बांटने पर आमदा है! इससे ना तो जनता का कल्याण होता है और ना ही राज्य का! राज्य की अर्थव्यवस्था गर्त में चली जाती है! राजस्व की कमी के चलते विकास की बातें हैं हवा हवाई साबित होने लगती हैं आम जनता को समझना होगा कि आपको फ्री में कुछ नहीं मिलता जनता के टैक्स से ही वह सब आता है! हमारे देश का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण परिवेश में निवास करता है जहाँ लोग राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक नहीं होते हैं इसलिए वे लोग आसानी से राजनेताओं की बातों में विश्वास कर लेते हैं और अपने वोट का महत्व नासमझ करके! मुफ्तकारी योजनाओं के नाम पर अपना वोट डाल देते है! अगर देखा जाये तो जनता को मैनिपुलेट करने का ये जो प्रयास बार-बार किया जाता है वह बहुत संवेदनशील है! चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को इसके खिलाफ सख्त रुख अख्तियार करना चाहिए इससे चुनाव सीधे रूप से प्रभावित होता है मुफ्त योजनाएं एक तरह से आधुनिक घूस का पर्याय बन गए है!
जब तक जनता इस बात को नहीं समझेगी कि मुफ्त नाम की चीजें कुछ भी नहीं होती हैं! यह सिर्फ एक प्रोपेगेंडा है जो वोटों को अपनी और आकर्षित करने के लिए घोषित किया जाता है! समझना होगा की फ्री में कुछ नहीं मिलता आम जनता के टैक्स से ही वह सब आता है! अगर आप आंकड़ों पर नजर डालेंगे तब देखेंगे कि राज्यों का बजट गवाही नहीं देता लेकिन मुफ्तखोरी की राजनीति का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है मुफ्तखोरी के बदले लोगों को कई मूलभूत सुविधाओं से समझौता करना पड़ता है साथ ही इसकी भरपाई के लिए सरकारें किसी ना किसी और रास्ते से जनता पर ही बोझ डालती हैं! वर्ष दर वर्ष घाटे का बजट पेश करने के बावजूद सरकार है और उनके राजनीतिक दल लोकलुभावन घोषणा वाली राजनीति से बाहर निकलने को तैयार नहीं है!
मतदाता के तौर पर हमें सोचना होगा कि हम अच्छा काम करने वाली सरकार चाहते हैं या मुफ्त के उपहार! मतदाताओं की जागरूकता के साथ ही ऐसे मसलों के समाधान की उम्मीद है जब तक देश की सभी राज्य सरकार अपने नागरिकों की मूलभूत सुविधाओं का निवारण नहीं करेंगे तब तक देश से गरीबी उन्मूलन और आम लोगो के जीवन समरसता में विकास नहीं किया जा सकता है!
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